" यही मंदिर , यही मस्जिद , यही तख्ते मुहम्मद हैं

चले आओ 'बेदिल' यही वादी-ए-जन्नत है "

बाजार में अल्हा..............ग़जल

>> सोमवार, 23 मार्च 2009




बाजार में अल्हा एक सिम्त राम बैठा हैं

यकीनन अपना ही लहू बदल नाम बैठा हैं


रफ्ता-रफ्ता इश्क हासिल होगा यारो

कम्बकत काशिद भी लिए पैगाम बैठा हैं


दामन मेरा हुस्न--आशिकी का मोहताज नहीं

बाजार सारा मेरा ही लगाकर दाम बैठा हैं


गुजर रही है ऐसे इम्तिहान-- दोर से जिन्दगी

राहबर की चाह में दिल सुबो-शाम बैठा हैं


मेरा महबूब चांदनी--चाँद है यकीं कारो

गर्दिश-- दोर में भी "बेदिल" लिए इनाम बैठा हैं



22-03-2009 (4:00 pm)

मुझे याद है तुम्हे हँसा कर छोड़ना..........ग़जल

>> बुधवार, 18 मार्च 2009


मुझे याद है तुम्हे हँसा कर छोड़ना
हम भूलते नहीं अपना बना कर छोड़ना


दुःख को हँसी में ही छुपाये रखना
दुनिया का काम तो है तोहमत लगा कर छोड़ना


दिल करे कभी दूर जाने का हमसे
कोशिश रहे साथ बता कर छोड़ना


ना भूल पाऊगा शायद मै तुझे
इन अदाओ से मुझे पागल बना कर छोड़ना


आज चाहे कतरा--खून बह जाए चोखट पर
नहीं आता "बेदिल" को हाथ बढा कर छोड़ना


17-3-09 (4:30pm)

तेरी महफ़िल में हमने आना छोड़ दिया..................ग़जल

>> शुक्रवार, 13 मार्च 2009


तेरी महफ़िल में हमने आना छोड़ दिया


महफ़िल--हिंद में हँस के हँसाना छोड़ दिया



इस गरदिश--आयाम में सावन कहा बाकी


तुने भी हँस कर बुलाना छोड़ दिया



महकते बदन पर नककाशी तेरे गजब की है


फ़ानुज को भी अब तुने जलाना छोड़ दिया



काशिद के इन्तजार में उम्र बीत गई है मेरी


तेरा ख़त आया जब जमाना छोड़ दिया



कयामत की रात में एहतेमाम करुगा मै


"बेदिल" ने करके तुझे बहाना छोड़ दिया.



13-03-2009 (5:00 pm)

होरी खेलन जाऊ...............''बेदिल''

>> गुरुवार, 12 मार्च 2009

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भीगी , भीगी , भीगी रे चुनरिया मोरी

पकड़ी गई रे चोरी कन्हईया तोरी

जटा जाल महाकाल विकराल

रस गाल मधुबाल ससुराल

आज ना चलन देऊ सीना जोरी

भीगी , भीगी , भीगी रे चुनरिया मोरी

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छान, बान, मान करो रसपान

जान,आन बड़ा देहु है दान

फास,सास,मॉस कभी दुःख देहु ना मोई

आख, जाच, राच पढ़े जो माने कोई

जडी जटिल प्रेम की आज पिऊ तोरी

भीगी , भीगी , भीगी रे चुनरिया मोरी
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आग, राग, फाग, साग आलोकिक गहने

प्रकर्ति प्रेम अनूप है पढ़े तो लगे महने

रहन, सहन, कहन, सोचो जरा को

उठान सो फायदा नहीं मरा को

गुरु इक्छा ईश्वर है कैसे जाऊ छोरी

भीगी , भीगी , भीगी रे चुनरिया मोरी
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काम, क्रोध, मद, लोभ, ना देखे ईश्वर कोई

जात, आत, मात, रात, कभी ना भूले कोई

"मान" गुरु सौदंर्य सम्पूर्ण सुलेखा

"बेदिल" चाँद-चादनी कबहु ना भुलेखा

होरी रात भेदी इहु चोरी

भीगी , भीगी , भीगी रे चुनरिया मोरी
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10-03-2009 (7:30pm)

पंजाबी ग़जल--"कलेया दा साडा जी नी लगदा"--

>> मंगलवार, 10 मार्च 2009

पंजाबी ग़जल


कलेया दा साडा जी नी लगदा


धिरदे बददल मैणु मिह नी लगदा



परदेस जदों आये आपा मित्रा नाल

मापया दे हथा दा स्वाद अत्थो सी नी लगदा


गंडे ते खेता विचो खेल खेलया असी

इतथो रोटिया दी गिनती शरीर विचो घी नी लगदा


साडा वतन प्यारा छडिया ना ज्योंदा

पता नी मैणु इत्थे जी की नी लगदा


हासया-हासया विचो पराया तो आन बैठा

आन्दे ने हन्जू साडा रब हसी नी लगदा


सोणिया नाल वादे सारे तोड़ ओंदा सी

जदों खुश होन्दे असी तदो रबा साडा खुसी नी लगदा


की लिखया असी पंजाबी नाल अथो ना कोई

मान सी साडा पर "बेदिल" मसिह नी लगदा




10-03-2009 (6:25 pm)

(होली का बदलता रूप).. होली पर आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाये.

सभी पाठको को मेरा नमस्कार ..अगर आप मुझसे मेरे ब्लॉग पर जुड़ना चाहते है तो बाए हाथ में एक जगह लिखा होगा "अनुसरण करे" वहा क्लिक करे और वहा अपनी I D चुने जिसमे आपका खाता है जैसे google में है तो वहा google के बटन पर क्लिक करे या yahoo पर है तो yahoo पर क्लिक करे अब दोस्ती करना कोई मुश्किल काम नही..धन्यवाद मेरी रचनाये तथा कुछ समय मेरे ब्लॉग को देने के लिए ...


आज का विषय है हमारे देश तथा आज-कल विदेशो में भी परचलित होने वाला वो त्यौहार है जो अब अपना रंग अपनीछटा खोता जा रहा है . और ये कोई अतिशोक्ति नहीं होगी की कुछ एक बरसो के भीतर ही होली जैसा त्यौहार नष्ट होजायेगा या उसके रंगों में रोनक की वो चकाचोंद दूर तक नजर दोडाने पर भी नजर नहीं आएगी. आज ये होली का पर्व है , ये रंगों का पर्व है , ये मिठाईयो का पर्व है , कही जगह ये भांग का भी पर्व है ...पर अब ये मज़ा नहीं रह गया है देश मेंआधुनिकरण की जो हवा चल रही है वो दीपावली , होली , दशहेरा , जैसे त्योहारों से कही आगे है कही रोचक है अब होलीएक बहाना सा रह गया है केवल लोगो की छुटी का आराम का , होली केवल आज उन दस साल के बालक का खेल है जोकेवल बच्चे ही खेल सकते है बड़े नहीं , वो भी शारीर में जब तक जान होती है खेलते है और माँ के बने पकवान खाकर कलविद्यालय के बारे में सोचने लगते है , आधुनिकरण और शहरीकरण ने हमारी सभ्यता हमारी संस्किर्ति सब चूर-चूर करदी हैदिल्ली शहर में जहा होली से एक मास पहले से ही रंगों का महफिलों का रंगमंचो का ताता लगा रहता था आज वहीदिल्ली शहर होली से महीना पहले तो क्या होली वाले दिन भी महफिलों का रंगमंचो का निर्माण तो छोडिये एक दुसरे कोरंग लगाने तक का इरादा तक नहीं करते केवल अवकास का आनंद लेते है ये ना दिमाग में ना लाईयेगा की और कही हालठीक है मुंबई , कलकत्ता , जैसे बड़े शहरो में भी ये ही हाल है ...


वैसे कुछ कुछ परदेशो ने हमारी और हमारे देश की लाज बचाई हुई है जैसे हमारी सास्कर्तिक राजधानी "वाराणशी" में रंगोंका जमावडा आज भी वैसा ही है जैसा पुराने समय में था हां फिर भी कुछ कमी तो आई ही है .आज के दिन वहा भंग पिनेका परच्लन पता नहीं कब से है.

होली त्यौहार यु तो कहते है दुश्मनी को दूर करके दिलो को जोड़ने का त्यौहार है पर अब ये बाते केवल किताबी हो गयी है , मुझे आज भी याद है , शयद आपको भी याद होगा होली से पहले होली दहन को जब घर की ओरते पूजन विधि के लिएतर्यार होती है कैसे छोटे -छोटे बच्चे गले में एक मीठी तोफियो और बिस्कुट के छोटे-छोटे टुकड़े वाली माला पहने अपनी माँके सन्ग चलते जाते है पूजन के बाद वो उन मालाओ को खाते हुए आते है और अगले दिन होली यानी धुलेंडी , धुलेटी , याआधुनिक नाम "रंग" खेला जाता है .
...



रंगों को देख जरा क्या सुंदर समां फेला है
हसीं गुलजार जन्नत रंगीन सारा अहला है
नफरत को प्यार में बदले इसमें कुछ तो बात है
भिगोया "बेदिल" दामन आज भी मैला है

आज हुआ ए कलम प्यार मुझे (ग़जल)

>> रविवार, 8 मार्च 2009

आज हुआ कलम प्यार मुझे

हो सके तो दे दुआ यार मुझे


ख़ुशी ही ख़ुशी का समां है चारो तरफ

तू दे सके तो दे मार मुझे


मंजिल--मकानात में पहुच कर जब देखेगा

टंगा होगा आइने पर हार मुझे


राह--इश्क में मर कर रह जाऊगा

असल में होगा इश्क का बुखार मुझे


ग़मो के दरिया में डूब कर निकला हूँ

जब ही पड़ा "बेदिल" नाम यार मुझे...




8-03-2009(1:20am)

मुकरिया

>> शुक्रवार, 6 मार्च 2009

()

दिल मेरे अलख जगाते ! शाम होते मुझे बेठा पाते !

बेदिलचर्चा दिल से जाती ! खाली पड़ा ये बिना बाती !

क्यु सखी ये पिया ? ना सखी ये दिया !


()

हरा रंग मुझे भाता ! लाल सफ़ेद में भी पाता !

बेदिलचर्चा मिश्री घोले ! कुछ-कुछ शब्द मुख से बोले !

सुंदर चितवन मुझे मोहता ! क्या आशिक ? ना सखी तोता !


()

जमीन अंदर घर बनाए ! कोई इसका भेद ना पाए !

बेदिलये सफ़ेद और काला ! मुँह खोले जहर का प्याला !

इसका जिगर ना कोई पाप ! सखी बैरी ? ना सखी साँप !


()

जगह-जगह ये पाते ! देश-देश नाम बदल जाते !

बेदिलसुख में याद ना करता ! दुःख में इसके चरणों पड़ता !

अरे ये केसा अचरज भाई ! बोलो कोन ? दोस्त ये तो साईं !


()

यारो लम्बा कद इसका ! रेत में चले तूफ़ान जिसका !

बेदिलइसकी बड़ी है शान ! राजिस्थान में बहुत महान !

पानी पीता लम्बी घुट ! क्यु यार आशिक ? नही यार ऊठ !


()

दो तरह के दात है ! दातो से दुश्मन की मात है !

बेदिलशरीर मोटा बड़े है दात ! शर्मीला इसकी कोई नही जात !

मोटा-ताजा सबका सच्चा साथी ! सखी साजन ? ना सखी हाथी !

चिट्ठाजगत

Sahitya Shilpi
रफ़्तार
http://www.chitthajagat.in/?ping=http://ajaaj-a-bedil.blogspot.com/

घनिष्ट मित्र का तोफा

तोहमतें कई मेरे पीछे मुझपे लगाता है वो
खुलकर बात करने में मग़र शरमाता है वो

कभी सिखाया करता था भले-बुरे का भेद जो
आज खुद ही बुराई का शहंशाह कहलाता है वो

फाँस भी कोई अगर उसे कभी चुभ जाती थी
रोता था मेरे पहलू में, आज मुझे रुलाता है वो

मसलसल जलता रहा लौ बनके जिसके लिए
देखकर कर भी घाव मेरे पीठ दिखाता है वो

पढ़-पढ़कर आँखों में ख़्वाब पूरे किए थे जिसके
एक प्यार की हकीकत पे फूल देके बहलाता है वो


--अमित के सागर


अजीब शख्स था कैसा मिजाज़ रखता था
साथ रह कर भी इख्तिलाफ रखता था

मैं क्यों न दाद दूँ उसके फन की
मेरे हर सवाल का पहले से जवाब रखता था

वो तो रौशनियों का बसी था मगर
मेरी अँधेरी नगरी का बड़ा ख्याल रखता था

मोहब्बत तो थी उसे किसी और से शायद
हमसे तो यूँ ही हसी मज़ाक रखता था

--अहमद फराज़
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